जगदीश मंदिर में मेवाड़ के महाराणा करते थे पूजा, Maharanas worshipped in Jagdish Temple Udaipur
झीलों की नगरी उदयपुर में एक ऐसा मंदिर मौजूद है जिसकी गिनती उत्तर भारत के सबसे विशाल और कलात्मक मंदिरों में होती है, इस मंदिर को जगदीश मंदिर के नाम से जाना जाता है.
भगवान विष्णु के रूप जगन्नाथ को समर्पित इस मंदिर को पहले जगन्नाथ राय के मंदिर के नाम से जाना जाता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसे जगदीश मंदिर के नाम से अधिक पहचाना जाता है.
यह मंदिर देवस्थान विभाग द्वारा संरक्षित राजकीय आत्मनिर्भर मंदिर है. ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में साक्षात भगवान जगदीश का वास है इसलिए इस मंदिर को जागृत मंदिर के रूप में पूजा जाता है.
Jagdish Mandir Udaipur Location
यह मंदिर सिटी पैलेस के मुख्य गेट से लगभग 150 मीटर की दूरी पर स्थित है. उदयपुर रेलवे स्टेशन से इस मंदिर की दूरी लगभग साढ़े तीन किलोमीटर है. आप बाइक या कार से यहाँ पर जा सकते हैं.
इस मंदिर का निर्माण मेवाड़ के महराणा जगत सिंह प्रथम ने करवाया था. इसके निर्माण में 25 वर्षों का समय लगा और यह मंदिर सन 1652 ईस्वी में पूरी तरह से बनकर तैयार हुआ.
मंदिर का प्रतिष्ठा समारोह विक्रम संवत् 1708 की द्वितीय वैशाखी पूर्णिमा को गुरुवार के दिन महाराणा जगत सिंह द्वारा संपन्न हुआ.
ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर के निर्माण में उस समय करीब 15 लाख रुपये खर्च हुए थे. इन रुपयों का वैल्यूएशन अगर आज के समय के हिसाब से किया जाये, तो करोड़ों रुपयों में होगा.
यह मंदिर जमीन के स्तर यानि तलहटी के भू भाग से 25 फीट ऊँचाई पर बना हुआ है. ऊपर चढ़ने के लिए संगमरमर की 32 सीढियाँ बनी हुई है.
मंदिर की ऊपरी सीढ़ियों के दोनों तरफ मार्बल के दो बड़े बड़े हाथी बने हुए हैं. ये हाथी एक पत्थर के बने हुए नहीं है, लेकिन ये इस प्रकार बने हैं कि इनके जॉइंट्स आसानी से नहीं दिखते हैं.
मंदिर परिसर में पंचायतन शैली में जगदीश जी के प्रमुख मंदिर के साथ चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर बने हुए हैं. ये छोटे मंदिर गणेश जी, शिव जी, माता पार्वती एवं सूर्य देव के बने हुए हैं.
मुख्य मंदिर के सामने द्वार पर गरुड़ जी बैठे हुए हैं. गरुड़ आधे मनुष्य और आधे चील के रूप में बैठ कर द्वार की रक्षा कर रहे हैं. परिसर में काले पत्थर का एक शिलालेख भी मौजूद है. इस शिलालेख से मंदिर सहित गुहिल राजाओं के सम्बन्ध में काफी जानकारी मिलती है.
Miraculous stone in Jagdish Mandir
मुख्य मंदिर के दरवाजे के एक तरफ बड़ा सा पत्थर है जिस पर संगमरमर की चरण पादुकाएँ बनी हुई है. बताया जाता है कि मंदिर का निर्माण होने तक भगवान जगदीश की प्रतिमा को इस पत्थर पर रख कर पूजा जाता था.
इस पत्थर को बड़ा चमत्कारी पत्थर बताया जाता है. कहा जाता है कि इस पत्थर को छूने मात्र से ही शरीर की सभी पीड़ाएँ और दर्द ठीक हो जाते हैं. जमीन के स्तर से तीन मंजिला यह मंदिर, 100 फीट के शिखरबंध और 18 इंची घेरे का 28 फीट ऊँचा ध्वज लिए नजर आता है.
नागर शैली में निर्मित यह मंदिर विशाल शिखर, गर्भगृह और सभामंडप से युक्त है. मंदिर पर भारतीय-आर्य स्थापत्य कला और इंडो-आर्यन स्थापत्य कला का भी काफी प्रभाव है.
इसका मंडोवर भाग सुन्दर प्रतिमाओं से अलंकृत है जिनमे हाथियों और सवारों के साथ संगीतकारों और नर्तकियों की प्रतिमाएँ मुख्य है.
मुख्य मंदिर की छत और दीवारें नक्काशीदार हैं जो सुन्दर कलात्मक मूर्तियों से सुसज्जित हैं. मंदिर की छत 50 कलात्मक स्तंभों पर टिकी हुई है. इसके ऊपर की मंजिल की छत भी 50 कलात्मक स्तंभों पर टिकी हुई है.
मंदिर के गर्भ गृह भगवान विष्णु की काले पत्थर की चार भुजाओं वाली भव्य मूर्ति स्थापित है. भगवान विष्णु अपने इस चतुर्भुज रूप में काफी मनमोहक लगते हैं.
संवत् 1736 में मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना ने इस ऐतिहासिक मंदिर पर हमला करके मंदिर के आगे के भाग को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया. उस वक़्त मंदिर की रक्षा के लिए नियुक्त नारू बारहट अपने 20 साथियों के साथ बहादुरी से लड़कर वीरगति को प्राप्त हुए.
संवत् 1780 में महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय ने एक लाख रुपये की लागत से इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया. यहाँ का प्रमुख त्यौहार जगन्नाथ रथ यात्रा के रूप में मनाया जाता है. इस रथ यात्रा में भगवान पालकी में विराजमान होकर पूरे शहर का भ्रमण करते हैं.
इसके अलावा होली के मौके पर यहाँ पर फागोत्सव मनाया जाता है. सावन में भगवान जगन्नाथ झूले पर सवार रहते हैं. मंदिर परिसर में चाँदी का एक हिंडोला भी देखने योग्य है.
Tourist places near Jagdish temple
मंदिर के पास अन्य दर्शनीय स्थलों में सिटी पैलेस, बागोर की हवेली, गणगौर घाट, अमराई घाट आदि प्रमुख है.
इस मंदिर और भगवान विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा के बारे में एक किवदंती प्रचलित है. इस प्रचलित किवदंती के अनुसार महाराणा जगत सिंह को एक साधु के चमत्कार से जगन्नाथपुरी में भगवान जगदीश के स्वप्न दर्शन का वरदान प्राप्त था.
एक दिन नियम भंग होने की वजह से बिना दर्शनों के मंदिर के कपाट बंद हो जाने की वजह से महाराणा भगवान जगदीश के दर्शन नहीं कर पाए, तब महाराणा ने अन्न जल त्याग दिया और प्रभु की भक्ति में लीन हो गए.
इस पर प्रभु ने उन्हें दर्शन दिए और कहा कि तुम अपने देश में ही मंदिर बनवाओ, मैं वहाँ आ जाउंगा, वैसे भी मीरा को दिए वचन के अनुसार मुझे मेवाड़ तो आना ही है.
महाराणा ने मंदिर बनवाना शुरू कर दिया. जब मंदिर का निर्माण पूर्ण हुआ तो उसमे मूर्ति प्रतिष्ठा का प्रसंग आया. तब भगवान ने महाराणा को स्वप्न में आकर मूर्ति प्राप्ति की जगह बताई और फिर उनके आदेश से डूंगरपुर के पश्वश शरण पर्वत से जगदीश जी की यह प्रतिमा लाई गई.
सा भी बताया जाता है कि यह मूर्ति डूंगरपुर के पास कुनबा गाँव में एक पेड़ के नीचे खुदाई से प्राप्त हुई थी.
इस पर्वत के बारे में बताया जाता है कि जब कृष्ण और जरासंध के बीच युद्ध हुआ, तो कृष्ण को पराजित करने का संकल्प लेकर जरासंध ने इस पर्वत पर आग लगा दी, तब कृष्ण ने भविष्यवाणी कर कहा कि कलयुग में इस पर्वत की प्रतिमा को पूजा जायेगा.
कहते हैं कि महाराणा जगत सिंह के मन में यह शंका भी उत्पन्न हुई कि प्रभु का पदार्पण इस प्रतिमा में होगा या नहीं.
इसी विचार में सोये महाराणा को भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि जगन्नाथपुरी में तुमने मुझे जो चार सोने के कड़े पहनाये थे, अगर वो ही कड़े मूर्ति प्रतिष्ठा के समय इस नव प्रतिमा के हाथो में अपने आप धारण हो जाएँ, तो समझ लेना कि मैं मेवाड़ में आ गया हूँ.
जब वास्तव में ऐसा ही हुआ तब महाराणा को विश्वास हो गया कि भगवान का मेवाड़ में प्रदार्पण हो गया है. अगर आपको दर्शनीय स्थल के साथ-साथ ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों को देखने में रूचि है तो आप जगदीश मंदिर को अवश्य देख सकते हैं.
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Written By
Rachit Sharma {BA English (Honours), University of Rajasthan}
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