शेखावाटी की मीरा कृष्ण भक्त करमेती बाई की कथा, Shekhawati Ki Meera Krishna Bhakt Karmeti Bai Story

करमेती बाई का जन्म खंडेला कस्बे के ब्रह्मपुरी मोहल्ले में हुआ था. इनके पिता का नाम पशुराम काथड़िया था जो खंडेला के शेखावत राजा के दरबार में राजपुरोहित थे.

परशुराम जी इन्हें बचपन में भागवत कथा, रामायण आदि सुनाया करते थे. इनका असर करमेती बाई के बाल मन पर काफी पड़ा और ये बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन होने लगी.

धीरे-धीरे कृष्ण के प्रति इनका अनुराग इतना अधिक बढ़ गया कि इनके मन में भगवान के प्रति प्रिया प्रियतम का भाव पैदा हो गया. प्रेम वश अपने आराध्य को बिहारी के नाम से पुकारती थी.

ये अपने बिहारी से कभी लडती तो कभी कीर्तन करते हुए नाचने लगती. कीर्तन करते समय ये कृष्ण भक्ति में इतना अधिक खो जाती थी कि अपनी सुध बुध तक खो बैठती थी.

उस समय बाल विवाह की प्रथा काफी प्रचलित थी परन्तु विवाह के पश्चात लड़की को ससुराल नहीं भेजा जाता था. युवावस्था में शादीशुदा लड़की को गौने की रस्म के बाद उसके ससुराल भेजे जाने की परंपरा थी.

कम उम्र में करमेती बाई का विवाह भी सांगानेर के वर्णा खांप के जोशी परिवार में कर दिया गया. इस उम्र में करमेती बाई विवाह का सही मतलब भी नहीं जानती थो. कृष्ण के प्रति इनका प्रेम उम्र के साथ बढ़ता चला गया.

Krishna bhakt karmeti bai life in khandela

युवावस्था में गौने की रस्म के पश्चात इन्हें इनके ससुराल भेजे जाने की बाते होने लगी तब ये उसी रात अपने घर से वृन्दावन के लिए पैदल ही निकल गई.

सुबह जब ये घर में नहीं मिली तो सभी लोग इनको ढूँढने में लग गए. परशुरामजी ने करमेती बाई के घर से चले जाने की बात राजा को बताई. राजा ने करमेती बाई को ढूँढने के लिए चारों दिशाओं में घुड़सवारों को भेजा.

करमेती बाई को भी यह अहसास था कि इन्हें घर में ना पाकर इनके पिताजी इन्हें सभी जगह ढूँढेंगे. रास्ते में घोड़ों की टप टप की आवाज सुनाई देने पर ये छिपने का स्थान ढूँढने लग गई परन्तु आस पास कहीं पर कोई छिपने का स्थान नहीं मिला.

अचानक इनकी नजर एक जोहड़े के पास मरे हुए ऊँट के कंकाल और खोल पर पड़ी. इस ऊँट के पेट का सम्पूर्ण भाग जंगली जानवरों ने खा लिया था और इसमें से दुर्गन्ध आ रही थी.

करमेती बाई भागकर उस ऊँट के खोल के पेट वाले हिस्से में छिप गई. जब घुड़सवार इस तरफ आए तो दुर्गन्ध के कारण वे मरे हुए ऊँट के पास नहीं आए.

करमेती बाई उस ऊँट के पेट में तीन दिनों तक भूखी प्यासी छिपी रही. शायद भगवान कृष्ण के आशीर्वाद से वह दुर्गन्ध भी सुगंध में परिवर्तित हो गई थी.

जिस जोहड़े के पास करमेती बाई ऊँट के पेट में छिपी थी वह जोहडा आज भी खंडेला से पूर्व दिशा में मुकुंद की बावड़ी के पास स्थित है. अब इस जोहड़े को करमा बाई जोहड़ के नाम से जाना जाता है.

जब करमेती बाई को इस बात से पूरी तरह से संतुष्टि हो गई कि अब कोई भी उनका पीछा नहीं कर रहा है तब ये ऊँट के पेट में से निकल कर गंगाजी की तरफ जाने वाले यात्रियों की टोली के साथ गंगा तट पर चली गई. बाद में यहाँ से ये वृन्दावन गई. यहाँ आकर ये ब्रह्मकुंड पर कृष्ण भक्ति में पूरी तरह से लीन हो गई.

परशुराम जी अपनी पुत्री को ढूँढते-ढूँढते मथुरा आए. यहाँ उन्हें कुछ ग्वालों और बागवानों से पता चला कि कोई लड़की वृन्दावन में ब्रह्मकुंड पर कृष्ण भक्ति में मगन है. ये मथुरा से वृन्दावन आए और अपनी पुत्री को ढूँढने लगे.

ढूँढते-ढूँढते एक रोज ये ब्रह्मकुंड पर पहुँचे. यहाँ पर उनकी नजर तपस्या में लीन करमेती बाई पर पड़ी. पिता ने पुत्री से मिलकर उसे वापस खंडेला चलने के लिए बहुत समझाया परन्तु करमेती बाई ने पिता को वापस लौटने से मना कर उन्हें भी भक्ति में लीन होने के लिए प्रेरित किया.

करमेती बाई ने अपने पिताजी को यमुना में से बिहारी जी की मूर्ति निकालकर दी एवं उसकी सेवा करने के लिए कहा. परशुराम जी अपने साथ बिहारी जी की मूर्ति को लेकर वापस खंडेला आ गए.

यहाँ आकर ये बिहारी जी की सेवा में इतने अधिक तल्लीन हो गए और दरबार में जाना बंद कर दिया. जब राजा को इनकी सेवा और करमेती बाई की भक्ति की महिमा के बारे में पता चला तो वह स्वयं करमेती बाई से मिलने वृन्दावन गए.

करमेती बाई के कृष्ण प्रेम को देखकर राजा बहुत प्रभावित हुए. इन्होंने करमेती बाई के लिए ब्रह्मकुंड पर एक कुटिया का निर्माण करवाया.

कहते हैं कि बाद में एक रोज साधू के वेश में भगवान स्वयं करमेती बाई के पास आए. इन्होंने करमेती बाई से भोजन करने के लिए कहा.

करमेती बाई द्वारा पहचाने जाने के बाद भगवान ने इन्हें अपने चतुर्भुज रूप में दर्शन दिए. कहते है करमेती बाई को भगवान अपने साथ ले गए. इस घटना के पश्चात करमेती बाई कभी भी उस घाट पर नजर नहीं आई.

राजा ने खंडेला लौटकर बिहारी जी का एक मंदिर बनवाया जिसमे करमेती बाई द्वारा परशुराम जी को दी गई बिहारी जी की मूर्ति को स्थापित किया गया.

इस मंदिर में आज भी परशुराम जी के वंशज ही सेवा पूजा का कार्य करते हैं तथा इन वंशजों को बिहारी जी के नाम से ही पुकारा जाता है.

परशुराम जी की वह हवेली जिसमे करमेती बाई का बचपन गुजरा आज भी जीर्ण शीर्ण हालत में खंडेला में मौजूद है. इस हवेली से थोड़ी दूरी पर बिहारी जी का वह मंदिर भी स्थित है जिसमे करमेती बाई द्वारा अपने पिता को दी गई बिहारीजी की मूर्ति स्थापित है.

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Written By

Uma Vyas {MA (Education), MA (Public Administration), MA (Political Science), MA (History), BEd}

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