त्रिवेणी धाम के फाउंडर संत गंगा दास जी महाराज, Founder of Triveni Dham Sant Ganga Das Ji Maharaj
श्री गंगादास जी महाराज का जन्म विक्रम संवत 1771 में सीकर जिले के अजीतगढ़ कस्बे के निकट अथौरा ग्राम में हुआ. इनके पिता का नाम मनोहर सिंह था जो यहाँ के जागीरदार थे. माता का नाम मगन कुंवरी था. इनका जन्म संतों के आशीर्वाद एवं नृसिंह भगवान की कृपा से हुआ था.
बचपन से ही ये बड़ी धार्मिक प्रवृति के थे. मात्र सात वर्ष की आयु में इन्होंने अपने पिता से नृसिंह भगवान का मंदिर बनवाने की प्रार्थना की जिसके फलस्वरूप इनके पिता ने अपनी हवेली के पास में ही नृसिंह भगवान का मंदिर बनवाया जो आज भी जीर्ण शीर्ण अवस्था में मौजूद है.
जिस हवेली में इनका जन्म हुआ और जिसमे इनका बचपन गुजरा, वो हवेली आज भी भग्नावस्था में मौजूद है. इनमे वैराग के लक्षणों को देखकर इनके पिता ने बचपन में ही इनका विवाह करने की ठानी. जब इन्हें इस बात का पता चला तब ये घर छोड़ कर चले गए.
Sant Gangadasji Maharaj Triveni Dham Shahpura Jaipur
यहाँ से ये श्रीधाराजी गए जहाँ इनकी मुलाकात श्रीनागाजी महाराज से हुई. नागाजी ने इन्हें पुष्कर जाकर अयोध्या के सिद्ध संत भरत दास जी महाराज से मिलने के लिए कहा.
पुष्कर के पालडी में भरतदासजी की जमात ठहरी हुई थी. यहाँ ये भरतदासजी से मिले और जमात में शामिल हो गए. इन्हें ठाकुरजी की ऊपरी सेवा (तुलसी, फल, झाडू, प्रसाद) दी गई. जमात जहाँ भी जाती ये ठाकुरजी को अपने सिर पर लेकर चलते.
समय के साथ ये वापस सरयू के तट पर स्थित काठिया मंदिर नामक आश्रम में पहुँचे. यहाँ पर भरतदासजी ने इन्हें वैष्णवीय दीक्षा दी और इनका नाम गंगादास रखा.
triveni dham ke founder sant ganga das ji maharaj
इधर इनके माता पिता एक संत की मदद से इन्हें ढूँढते ढूँढते काठिया मंदिर तक आ पहुँचे. यहाँ ये अपने पुत्र से मिले और भरतदासजी महाराज से आग्रह किया कि वे उनके पुत्र को उनके साथ जाने की अनुमति दे.
गुरु की अनुमति मिलने के पश्चात गंगादासजी ने अपने माता पिता को अपना अधूरा अनुष्ठान पूरा कर शीघ्र लौटने का आश्वासन देकर भेज दिया. बाद में इन्होंने संगोपांग योग की शिक्षा ली और अष्टांग योग की सभी सिद्धियाँ प्राप्त की.
Gangadasji was perfect in Sangopang Yoga and many Siddhis
साथ ही अणिमा सिद्धि, महिमा सिद्धि, लघिमा सिद्धि, प्राप्ति सिद्धि, प्राकाम्य सिद्धि, ईशित्व सिद्धि, वशिता सिद्धि, कामवसायिता सिद्धि, दूर श्रवण सिद्धि, मनोजव सिद्धि, परकाय प्रवेश सिद्धि आदि अनेक सिद्धियों को प्राप्त कर ये सिद्ध महापुरुष बन गए.
अपने अधूरे कार्यों की पूर्ति के पश्चात अयोध्या से राजस्थान की तरफ लौटे और शाहपुरा के पास बाड़ी जोड़ी के निकट खेमजी महाराज के आश्रम में एक वर्ष तक रहे. बाद में यहाँ से निकलकर पिथलपुर के निकट वेर कुंड में दो वर्षों तक रहे.
यहाँ पर इन्होंने पीपल का पेड़ लगाया जो आज भी मौजूद है. कहते हैं कि लोग इस पीपल के फल खाते हैं और अपनी पुत्री की शादी में भेंट स्वरुप देते भी हैं.
इनकी तपस्या की वजह से यहाँ पर गंगाजी की एक धारा प्रकट हुई. गंगाजी के इस प्राकट्य की वजह से इनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई. इनके माता पिता भी यहाँ आते रहते थे लेकिन उन्हें अपने वंश के आगे बढ़ने की चिंता सताती रहती थी.
अपने माता पिता को वंश वृद्धि के लिए चिंतित देखकर एक दिन इन्होंने अपनी माताजी से दूसरे पुत्र की प्राप्ति के लिए कह दिया. इनकी सिद्ध वाणी की वजह से इन्हें एक भाई की प्राप्ति हुई जिसका नाम परबत सिंह रखा गया.
इसके पश्चात इन्होंने बारह वर्षों तक जगदीशजी की पहाड़ियों में जाकर तपस्या की और अपना लक्ष्य प्राप्त किया. यहाँ से ये पुनः गंगाजी के किनारे पर आए और यहीं पर तपस्या करने लगे. यहाँ पर तीन धाराओं के संगम की वजह से यह स्थान त्रिवेणी धाम के नाम से विख्यात हुआ.
इन तीन धाराओं में एक धारा जगदीशजी के पहाड़ों से, दूसरी पश्चिम की तरफ से एवं तीसरी धारा को स्वयं गंगादासजी ने प्रकट किया था. ऐसा माना जाता है कि यह पानी इतना पावन है कि इसके स्पर्श मात्र से ही सभी पाप धुल जाते हैं.
गंगादासजी की आज्ञा से इनके शिष्य जानकी दास जी महाराज ने भगवान नृसिंह का मंदिर बनवाया एवं इसमें विक्रम संवत 1814 की वैशाख सुदी चतुर्दशी के दिन स्वहस्त निर्मित नृसिंह भगवान की मूर्ति स्थापित की.
आज भी त्रिवेणी धाम में यह मंदिर भक्तों की मनोकामना को पूर्ण करता है. बाद में इसे गढ़नृसिंह के नाम से जाना जाने लगा. गंगादास जी त्रिवेणी के तट पर स्थित उस पहाड़ी पर बैठ कर प्रभु का चिंतन करते थे जहाँ पर जगतगुरु स्वामी रामानंदाचार्य जी महाराज की चरण पादुकाएँ मौजूद हैं.
ये प्रत्येक एकादशी या महीने में एक बार अपनी जन्मभूमि अथौरा की परिक्रमा किया करते थे. एक बार परिक्रमा करते समय इनके भाई परबत सिंह की पत्नी अपने पति की मृत्यु के पश्चात उनके जीवन की पुनः प्राप्ति के लिए इनके पास आई और अपने पति के लिए जीवन दान माँगा.
अनुज की पत्नी द्वारा अपने पति के लिए जीवन दान मांगे जाने पर इन्होंने त्रिवेणी धाम में आकर कार्तिक सुदी षष्टी विक्रम संवत 1840 को समाधि लेकर अपनी आयु अपने अनुज को प्रदान कर दी.
गंगादासजी के पश्चात अनेक संतों ने त्रिवेणी धाम की भूमि को अपना तपोस्थल बनाया एवं जिस वजह से इस स्थान की ख्याति सम्पूर्ण भारत में फैली.
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Written By
Uma Vyas {MA (Education), MA (Public Administration), MA (Political Science), MA (History), BEd}
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