ऐसे हुआ था हल्दीघाटी का युद्ध

ऐसे हुआ था हल्दीघाटी का युद्ध - Haldighati Ka Yuddh, इसमें हल्दीघाटी के घटनाक्रम को दर्शनीय स्थलों के साथ-साथ सिलसिलेवार तरीके से समझाया गया है।

Haldighati Ka Yuddh

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जब-जब महाराणा प्रताप का नाम लिया जाता है तब-तब हल्दीघाटी का जिक्र जरूर आता है। यह वह भूमि है जिस पर 18 जून 1576 के दिन महाराणा प्रताप और मुगल शहंशाह अकबर की सेना के बीच में युद्ध हुआ था।

यह युद्ध मात्र पाँच छः घंटे तक चला था लेकिन भारत के इतिहास में वह छाप छोड़ गया जिसे पढ़कर और सुनकर स्वाधीनता के लिए बलिदानी योद्धाओं के प्रति मन श्रद्धा से भर उठता है।

यह वह भूमि है जिसमें अपनी आन बान और शान के साथ-साथ मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए शहीद हुए लोगों का लहू मिला हुआ है। शौर्य की प्रतीक इस माटी को भारत के बाहर इजरायल तक ले जाया जाता है।

हल्दीघाटी के युद्ध का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने इसकी तुलना यूनान के थर्मोपॉली युद्ध से कर इसे मेवाड़ का थर्मोपॉली कहा है।

यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में युद्ध स्थल रक्त तलाई, शाहीबाग, हल्दीघाटी का मूल दर्रा, प्रताप गुफा, चेतक नाला, चेतक समाधि एवं महाराणा प्रताप स्मारक प्रमुख है।

आज हम हल्दीघाटी में हुए घटनाक्रम के साथ-साथ इस क्षेत्र के सभी ऐतिहासिक और दर्शनीय स्थलों को विवरण के साथ समझते हैं।

हल्दीघाटी क्षेत्र लगभग पाँच छः किलोमीटर में फैला हुआ है जिसका जर्रा-जर्रा महाराणा प्रताप और उनके बलिदानी सेनानायकों की वीरता की गाथा कहता है।

यह क्षेत्र खमनौर गाँव में स्थित रक्त तलाई से लेकर बलीचा गाँव में स्थित महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की समाधि तक फैला हुआ है।

अगर लोकेशन की बात की जाए तो उदयपुर से हल्दीघाटी की दूरी लगभग 45 किलोमीटर है।

इस जगह को हल्दीघाटी इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहाँ की चट्टानों और घाटियों में पाई जाने वाली मिट्टी का रंग हल्दी की तरह पीला है। हल्दीघाटी को राती घाटी भी कहा जाता है।

वर्तमान में पर्यटक जिस सड़क को हल्दीघाटी दर्रा समझकर घूमते हैं, वास्तविकता में वह मूल दर्रा नहीं है। यह सड़क तो मूल दर्रे को उसके ऐतिहासिक स्वरूप में बनाये रखने के लिए बाद में पहाड़ को काटकर बनाई गई है।

मूल दर्रा बलीचा की तरफ थोडा आगे जाने पर सड़क के बगल में स्थित है, जिसमें पैदल जाने का रास्ता बना हुआ है। यहाँ पर दर्रे के प्रारंभ होने का बोर्ड भी लगा हुआ है।

यह दर्रा प्राचीन समय का एक रास्ता है जो खमनौर को बलीचा गाँव और आगे उदयपुर तक जोड़ता था। बियाबान घाटियों के बीच में से गुजरने वाले इस दर्रे की चौड़ाई अधिक नहीं है।

पर्यटन की दृष्टि से देखा जाए तो मूल दर्रा दो कारणों से काफी उपेक्षित है। एक तो पर्यटकों को इसके बारे में पता ही नहीं है और दूसरा जिन्हें पता है वे जंगली जानवरों के भय से इसमें नहीं जाते हैं।

अब हम हल्दीघाटी के घटनाक्रम को दर्शनीय स्थलों के साथ सिलसिलेवार तरीके से समझेंगे।

जैसा कि हमें पता है कि मुगल शहंशाह अकबर ने मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप के पास अपनी अधीनता को स्वीकारने के लिए प्रस्ताव भेजा था जिसे महाराणा प्रताप ने ठुकरा दिया।

परिणामस्वरूप अकबर ने आमेर के राजा मानसिंह के नेतृत्व में अपनी सेना को मेवाड़ पर कब्ज़ा करने के लिए भेजा।

अकबर की सेना ने हल्दीघाटी क्षेत्र में पहुँच कर जिस स्थान पर अपना पड़ाव डाला उस स्थान को बादशाह बाग या शाही बाग के नाम से जाना जाता है।

अकबर की शाही सेना इस स्थान पर कई दिनों तक रुकी जिसे इस बाग में घूमकर महसूस किया जा सकता है।

दूसरी तरफ महाराणा प्रताप की सेना बलीचा गाँव की तरफ की पहाड़ियों के साथ-साथ हल्दीघाटी के पुराने दर्रे में मोर्चाबंदी के साथ डटी हुई थी।

यहाँ पर एक गुफा बनी हुई है जिसे प्रताप गुफा कहा जाता है। ऐसा बताया जाता है कि महाराणा प्रताप अपने सरदारों के साथ इसी गुफा में हल्दीघाटी के युद्ध की रणनीति बनाया करते थे।


गौरतलब है कि महाराणा प्रताप की आदिवासी सेना छापामार युद्ध पद्धति में निपुण थी इसलिए इन्होंने हल्दीघाटी की दुर्गम पहाड़ियों में मौजूद इस संकरे दर्रे को युद्ध के लिए चुना।

इस दर्रे की पहाड़ियों में महाराणा प्रताप के सैनिक अपनी तय रणनीति के साथ मुगल सेना का इन्तजार करने लगे। युद्ध वाले दिन बादशाह की सेना हल्दीघाटी के दर्रे को पार करने के लिए इसके निकट पहुँची।

जैसे ही मुगल सैनिक दर्रे में प्रवेश करने लगे वैसे ही प्रताप की सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण इतना भीषण था कि मुगल सेना पीछे हटते-हटते खमनौर में बनास नदी के पास स्थित रक्त तलाई नामक स्थान तक पहुँच गई।

प्रताप की सेना भी इन्हें खदेड़ते हुए दर्रे से बाहर निकल कर यहाँ तक आ गई। महाराणा प्रताप की सेना की संख्या मुगल सेना से काफी कम होने और दर्रे से निकलकर सपाट मैदान में युद्ध करने की वजह से युद्ध में मुग़लों का पलड़ा भारी पड़ने लगा।

युद्ध में महाराणा प्रताप चेतक घोड़े पर और मुगल सेनापति मानसिंह हाथी पर बैठ कर युद्ध कर रहे थे। अचानक महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक ने मानसिंह के हाथी पर छलांग लगाईं और महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर आक्रमण कर दिया।

मानसिंह बच गया लेकिन हाथी की सूंड में बंधी तलवार की वजह से चेतक का एक पैर बुरी तरह से जख्मी हो गया। महाराणा प्रताप के बुरी तरह से घायल हो जाने पर प्रताप के अन्य सेनानायकों ने प्रताप को युद्ध भूमि से बाहर भेज दिया।

झाला मान की कद काठी महाराणा प्रताप के जैसी होने की वजह से इन्होंने महाराणा प्रताप के चिन्ह धारण कर युद्ध किया ताकि मुगल सेना को प्रताप की मौजूदगी का अहसास होता रहे।

चेतक घोडा अपने स्वामी महाराणा प्रताप को तीन पैरों पर दर्रे के आगे बलीचा की तरफ ले आया। यहाँ पर उसने छलांग लगाकर 22 फीट चौड़े नाले को पार किया और बाद में थोड़ी दूरी पर जाकर दम तोड़ दिया।

चेतक ने जिस 22 फीट चौड़े नाले को पार किया था उसे चेतक नाले के नाम से जाना जाता है। बारिश के मौसम में यहाँ पर पानी बहता रहता है।

चेतक ने जिस स्थान पर दम तोडा उस स्थान पर चेतक की समाधि बनी हुई है। यह समाधि इंसान और जानवर के भावनात्मक सम्बन्ध का जीता जागता उदाहरण है।

निकट की पहाड़ी पर महाराणा प्रताप का स्मारक बना हुआ है और यहाँ पर चेतक पर बैठे महाराणा प्रताप की प्रतिमा बनी हुई है। महाराणा प्रताप के साथ उनके घोड़े चेतक के साथ-साथ उनके हाथी रामप्रसाद का नाम भी लिया जाता है।

इस युद्ध में महाराणा प्रताप के हाथी रामप्रसाद ने अकेले ही 13 हाथियों को मार गिराया था। युद्ध के पश्चात इसे पकड़ कर अकबर के पास ले जाया गया जहाँ इसने 18 दिन तक कुछ भी ना खाकर अपनी जान दे दी।

कहते हैं इस घटना के बाद अकबर ने हताशा में कहा कि मैं जिसके हाथी को मेरे सामने नहीं झुका पाया उस महाराणा प्रताप को क्या झुका पाऊँगा।

कहते हैं कि युद्ध में दोनों तरफ के इतने अधिक सैनिक मारे गए थे कि उनके रक्त से बनास के किनारे पर स्थित युद्ध भूमि के निकट लाल रंग का तालाब बन गया था इसलिए इस स्थान को रक्त तलाई कहा जाता है।

रक्त तलाई का मतलब खून से भरा हुआ छोटा तालाब होता है। वर्तमान में यह स्थान एक बगीचे में बदल दिया गया है।

यहाँ पर युद्ध में बलिदान देने वाले महाराणा प्रताप के कुछ सेनानायकों की स्मृति में छतरियाँ बनी हुई है जिनमें झाला मान सिंह, ग्वालियर के रामशाह तंवर और उनके तीन पुत्र शालिवाहन सिंह, भवानी सिंह एवं प्रताप सिंह आदि की छतरियाँ प्रमुख है।

यहीं रक्त तलाई में झाला मान सिंह की छतरी के पास ही महाराणा प्रताप के सेनापति हाकिम खान सूर की मजार बनी हुई है। इस जगह पर हाकिम खान सूर वीरगति को प्राप्त हुए थे।

बताया जाता है कि इन्होंने मरने के बाद में भी अपनी तलवार को नहीं छोड़ा था और इन्हें इनकी तलवार के साथ ही दफनाया गया था।

हल्दीघाटी के युद्ध का विश्लेषण करने पर एक विशेष बात यह सामने आती है कि इस युद्ध में अकबर की सेना का सेनापति हिन्दू मानसिंह था और प्रताप की सेना का सेनापति मुस्लिम हाकिम खान सूर था।

आज हल्दीघाटी के अधिकांश ऐतिहासिक स्थल उपेक्षित से पड़े हैं। इन गौरवशाली स्थलों के संरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

अगर आपको महाराणा प्रताप को करीब से महसूस करना है तो जीवन में एक बार इस वीर भूमि की हल्दीनुमा माटी को नमन करने अवश्य जाना चाहिए।

हल्दीघाटी के असली दर्रे की मैप लोकेशन - Map location of the original pass of Haldighati



हल्दीघाटी के युद्ध का वीडियो - Video of Battle of Haldighati



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Ramesh Sharma

My name is Ramesh Sharma. I am a registered pharmacist. I am a Pharmacy Professional having M Pharm (Pharmaceutics). I also have MSc (Computer Science), MA (History), PGDCA and CHMS. Usually, I travel at hidden historical heritages to feel the glory of our history. I also travel at various beautiful travel destinations to feel the beauty of nature. I write religious articles related to temples and spiritual places specially Khatu Shyamji also.

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