जीण माता का चमत्कारी मंदिर - Jeen Mata Mandir, इसमें सीकर में खाटू श्याम जी के पास जीणमाता में स्थित जीण माता के चमत्कारी मंदिर के बारे में जानकारी है।
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जीण माता का मंदिर अरावली की सुरम्य पहाड़ियों के बीच में स्थित है। यह मंदिर सीकर से लगभग 25 किलोमीटर तथा जयपुर से लगभग 108 किलोमीटर की दूरी पर है।
खाटूश्यामजी मंदिर से इसकी दूरी लगभग 29 किलोमीटर है। यह मंदिर तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। बारिश के मौसम में यह जगह धार्मिक स्थल के साथ-साथ एक पर्यटक स्थल में भी तबदील हो जाती है।
जीणमाता चौहानों के साथ-साथ कई जाति और वंशों की कुल देवी के रूप में पूजी जाती है। जीणमाता को साक्षात शक्ति का रूप एवं जीण धाम को सिद्ध शक्ति पीठ के रूप में माना जाता है।
जीणधाम के दर्शनीय स्थलों में जीणमाता की मुख्य मूर्ति के साथ-साथ भँवर वाली माता मंदिर, हर्षनाथ भैरव मंदिर, प्राचीन धूणा, प्राचीन कुंड, प्राचीन शिवालय, माता के तपस्या स्थल काजल शिखर पर माता का मंदिर, प्राचीन झील, चौबीसों घंटे जलने वाला अखंड दीपक, प्राचीन जीण समाधि स्थल, प्राचीन नोपत (ढोल), पहाड़ी के शिखर पर माला बाबा के दर्शन, कपिल मुनि की धारा (झरना) एवं मंदिर के स्तंभों पर स्थित प्राचीन शिलालेख प्रमुख हैं।
बताया जाता है कि मंदिर में कुल आठ शिलालेख लगे हुए हैं जिनमें सबसे प्राचीन शिलालेख 972 ईस्वी (विक्रम संवत 1029) का है। इन शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण मोहिल के पुत्र हंड (हरड़) ने करवाया था।
यह भी बताया जाता है इस स्थान पर पहले कपिल मुनि का निवास था एवं यहाँ पर जयंती माता का मंदिर था। बाद में जीण की तपस्या स्थली की वजह से यह स्थान जीणमाता के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
मंदिर की बाहरी सीढ़ियों के पास ही जीणमाता की महिमा के सम्बन्ध में पत्थर पर एक लेख लिखा हुआ है जिससे जीणमाता के विषय में काफी जानकारी प्राप्त होती है।
सीढ़ियों से ऊपर जाने पर बड़ा सा हॉल बना हुआ है। इस हॉल में बाईं तरफ जाने पर प्राचीन जीण कुंड एवं प्राचीन शिव मंदिर स्थित हैं।
हॉल में दाँई तरफ मुख्य मंदिर में प्रवेश करने के लिए प्रवेश द्वार है। इस द्वार से प्रवेश करने पर हम मुख्य मंदिर में पहुँच जाते हैं। मुख्य मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है।
मंदिर के गर्भगृह, सभामंड़प एवं स्तंभों पर की गई भव्य नक्काशी तत्कालीन शिल्पकला का नायाब उदाहरण है। मंदिर के स्तंभों पर मौजूद शिलालेखों को देखने से मंदिर की प्राचीनता का अहसास स्वयं ही होने लगता है।
मंदिर में जीणमाता की अष्टभुजी प्रतिमा है जिसको देखकर ऐसा लगता है कि जैसे साक्षात भवानी माता ही दर्शन दे रही हो। मुख्य मंदिर के पीछे की तरफ एक बड़ा हॉल है। इस हॉल में जमीन के नीचे भँवरों वाली माता का मंदिर बना हुआ है।
सीढियाँ उतरकर नीचे जाने पर जाने पर भँवरों वाली माता के दर्शन होते हैं। हॉल में कुछ आगे मुगल सेना द्वारा निशान स्वरुप भेंट किए हुए बड़े-बड़े नौपत (ढोल) मौजूद है।
मुख्य मंदिर से बाहर की तरफ थोड़ी ऊँचाई पर एक महात्मा का तप स्थान है जिसे प्राचीन धूणा के नाम से जाना जाता है। यहीं बटुक भैरव का स्थान भी है।
पास में ही हर्षनाथ भैरव का मंदिर भी स्थित है। हर्षनाथ भैरव का मुख्य मंदिर यहाँ से 11 किलोमीटर दूर हर्ष के पहाड़ पर स्थित है।
वर्ष के दोनों नवरात्रों में जीणमाता का मेला लगता है। पहला मेला चैत्र सुदी एकम् से नवमी तक और दूसरा मेला अश्विन (आसोज) सुदी एकम से नवमी तक लगता है। इन मेलों में लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
मेले के समय मंदिर के बाहर सपेरे बीन बजाते हैं और औरतें जीणमाता की स्तुति में लोक गीत गाती हैं। वैसे तो यहाँ पर वर्ष भर ही बच्चों का मुंडन संस्कार चलता रहता है परन्तु मेले के समय जात जडुले के लिए आने वालों की तादात काफी अधिक हो जाती है।
जीणमाता के गीत को राजस्थानी लोक गीतों में सबसे अधिक समयावधि का माना जाता है। करुण रस में डूबा यह गीत भाई बहन के अटूट प्रेम को दर्शाकर श्रोताओं को भाव विह्वल कर देता है।
आदि काल में माता की सेवा पूजा माला बाबा द्वारा की जाती रही। वर्तमान में माला बाबा के पाराशर ब्राह्मण वंशजों द्वारा पूजा अर्चना का कार्य किया जाता है।
जीण माता को भँवरों की देवी कहे जाने के पीछे माता के चमत्कार की एक रोचक कहानी है। सत्रहवीं शताब्दी में औरंगजेब ने हिन्दुओं के मंदिरों को तोड़ने के अभियान के तहत अपने एक सेनापति दराब खान के नेतृत्व में एक सैन्य टुकड़ी शेखावाटी क्षेत्र में भी भेज रखी थी।
मुगलों की इस सेना ने शेखावाटी के कई मंदिरों को तोड़ा जिनमें हर्ष गिरि की पहाड़ी पर मौजूद हर्षनाथ भैरव के मंदिर के साथ-साथ शिव मंदिर को भी खंडित कर दिया था।
इनको तोड़ने के बाद चैत्र शुक्ल षष्ठी विक्रम संवत् 1735 (1678 ईस्वी) के दिन औरंगजेब की सेना जीण माता के मंदिर को तोड़ने के लिए आई।
मंदिर के बाहरी भाग को तोड़ने के बाद जैसे ही ये मंडप में पहुँची तो इस सेना पर मधुमक्खियों (भँवरों) ने हमला कर दिया।
मुगल सेना को जान बचाकर भागना पड़ा। बाद में इस सेना ने समर्पण कर निशान के रूप में अपने नंगाड़े मंदिर में अर्पित किए एवं आमेर राज्य की तरफ से मंदिर की अखंड ज्योत के लिए नियमित रूप से तेल की व्यवस्था करवाई गई।
इस प्रकार माता ने भँवरों के द्वारा मुगलों से मंदिर की रक्षा की जिस वजह से इसे भँवरों वाली माता या भँवरों की देवी भी कहा जाता है।
चौहान नरेश की पुत्री जीण आज की विख्यात जीण माता कैसे बन गई इसके पीछे एक लम्बी कहानी है।
लगभग एक हजार वर्ष पहले चूरू जिले में घांघू नामक रियासत पर ठाकुर गंगो सिंह चौहान (घंघराज चौहान) का शासन था।
इनका विवाह रातादे नामक अप्सरा के साथ हुआ था। विवाह के कई वर्षों के पश्चात भी संतान नहीं होने के कारण ये काफी दुखी रहते थे।
एक बार शिकार पर निकले राजा वर्तमान जीणमाता के घने जंगलों में स्थित कपिल मुनि के आश्रम तक पहुँच गए। यहाँ पर तपस्या में लीन कपिल मुनि की सेवा में लग गए।
इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर कपिल मुनि ने इन्हें वरदान मांगने को कहा। राजा ने संतान का वरदान माँगा। बाद में मुनि के आशीर्वाद से राजा के एक पुत्र एवं पुत्री का जन्म हुआ।
पुत्र का नाम हर्ष एवं पुत्री का नाम जीण रखा गया। दोनों भाई बहनों में आपस में बड़ा गहरा प्रेम था। हर्ष सभी प्रकार से अपनी बहन का ध्यान रखता था।
समय के साथ हर्ष का विवाह आभलदे के साथ हुआ। आभलदे से दोनों भाई बहन का निश्चल प्रेम देखा नहीं गया और इन्होंने एक दिन अपनी ननद को ताना मारकर अपनी सौत की संज्ञा दे दी।
जीण से यह अपमान सहन नहीं हुआ और वह रूठ कर घर से उसी स्थान की तरफ लौट आई जिस स्थान पर उसके पिता को संतान प्राप्ति का वरदान मिला था।
यहाँ पर अरावली की पहाड़ियों में एक पहाड़ के शिखर पर जाकर तपस्या में लीन हो गई। जब हर्ष को इस बात को पता लगा तो वह अपनी बहन को मनाकर वापस ले जाने के लिए ढूँढता हुआ उसके पास आया।
दोनों भाई बहनों के मध्य बड़ा भावुक वार्तालाप हुआ। जीण ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपने भाई को कहा कि उसने मोह माया त्याग दी है और वह अब कभी वापस नहीं लौटेगी।
जीण के बहते हुए आँसुओं के साथ-साथ उनका काजल भी बहकर नीचे गिर रहा था जिसकी वजह से वह पहाड़ काजल शिखर के नाम से जाना गया।
ज़ीण के दृढ निश्चय और उसके प्रति अपने अगाध प्रेम की वजह से हर्ष ने भी घर नहीं लौटने का निश्चय किया और एक दूसरे पहाड़ के शिखर पर जाकर बहन की विपरीत दिशा में मुँह करके भगवान शंकर के रूप भैरव की साधना में लीन हो गया। बाद में यह पहाड़ हर्ष नाथ या हर्ष गिरि के नाम से जाना गया।
कपिल मुनि की इस तपोभूमि पर जीण आदि शक्ति की घोर तपस्या में लीन हो गई। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आदि शक्ति भँवरावाली माता इनके सामने प्रकट हुई और इन्हें भविष्य में अपने रूप में जीण भवानी के नाम से पूजे जाने का वरदान दिया।
जीण अपनी तपस्या के बल पर दुर्गा के रूप में गिनी जाने लगी वहीं हर्ष अपनी तपस्या के बल पर हर्षनाथ भैरव बन गए।
इस प्रकार अपनी तपस्या के बल पर दोनों भाई बहनों ने देवत्व प्राप्त किया और लाखों लोगों की आस्था का केंद्र बन गए। दोनों भाई बहन राजस्थान के प्रमुख लोक देवता के रूप में गिने जाते हैं।
जीण माता मंदिर की मैप लोकेशन - Map Location of Jeen Mata Mandir
जीण माता मंदिर का वीडियो - Video of Jeen Mata Mandir
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